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सोमवार, 22 जून 2020

आदमी

  आदमी 
प्रायः आदमी का तात्पर्य आम ‘आदमी’ से उद्घाटित होता है, जो इंसानियत एवं मानवता का प्रतिनिधि है।  यह  स्त्री  एवं पुरुष दोनों का संबोधन है।   यदि आदमी अपनी आदमियत से गिरेगा तो  हैवान  बनेगा, और वह आदमीयत  से ऊपर उठेगा, तो देवता अवश्य बन जाएगा। 
यह शक्तिमान आदमी अपना ही मित्र और  अपना ही शत्रु है। दुख की बात है कि प्रकृति की सबसे अनोखी यह रचना ‘आदमी’ आज उसके ही प्रतिकूल बन बैठा है।  यदि आदमी प्रकृति के अनुकूल बन सके, तो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आएगा।  अन्यथा नर्क सर्वत्र  दृश्यमान हो रहा है। 
अब आदमी अपने को ‘आदमी’ नहीं भगवान मानने को आतुर है।  उसकी मति भ्रष्ट हो गई है।  उसने ज्ञान से दूरी बनाकर , विज्ञान से नाता जोड़ लिया है।  उसने  विज्ञान को ही ज्ञान समझने की भूल कर दी है।  आज तो उसने विकास की दिशाहीन दौड़  से विनाश को ही आमंत्रित कर लिया है।  सर्बनाश की ओर आदमी के कदम बढ़ते ही जा रहे हैं। आदमी का जन्म क्यों हुआ, उसे जीवन क्यों मिला? इसीलिए कि वह स्वयं को पहचान सके। वस्तुतः स्वयं को जान लेना ही उसका परम कर्तव्य है, और परम धर्म भी । आदमी को स्वयं अपने अंदर के रहस्य को खोजना चाहिए ,तब भीतर तो आदमी ही बैठा मिलेगा, भगवान  का भेजा हुआ आदमी। आदमी अपने को मंत्री, अधिकारी, व्यापारी और ना जाने क्या क्या समझता है, लेकिन अपने अंदर बैठे आदमी को नहीं मानता। और अनंत काल से उसकी यह भूल अभी तक सुधारी नहीं जा सकी है। 
आदमी को कई दुर्लभ शक्तियां प्राप्त है। उसे  कर्म का अधिकार मिला है जो देवताओं को भी सुलभ है नहीं है।  वर्तमान जन्म में आदमी को प्रेम, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य का अवसर उपलब्ध कराया गया है।  बुद्धि एवं विवेक की सर्वोत्तम कृति यह ‘आदमी’ का चोला बार-बार नहीं मिलता। इसीलिए धर्म को धारण करके मुक्ति का उपाय करना ही उसके लिए एकमात्र निसकंटक पथ है। 
 धर्म को धारण करने का मतलब है, प्रकृति के नियमों का अनुसरण करना।  प्रकृति के नियमों के अनुसार  हमें पेड़- पौधे और पशुओं से शिक्षा लेनी चाहिए कि  कैसे वह एक दूसरे के स्वावलंबन और विकास को आगे बढ़ाते हैं। प्रकृति बनी  रहे, उसी में लगे रहना है।  इसी तरह से हमारे यहां जो सफल लोग हैं ,उनको चाहिए कि प्रकृति के विकास एवं  उन्नयन हेतु पूरा प्रयास करें, बाकी लोग तो उसे नियम मानकर अवश्य पालन करेंगे। 

 धर्म का मतलब अतिशय शोषण नहीं है।  धर्म का मतलब प्रकृत विरोधी कर्तव्य करना नहीं  है। सबको साथ लेकर चलना, प्रकृति  का पूर्ण विकास करना, धर्म का मतलब   होना चाहिए , ना कि मंदिर में बैठकर पूजा-पाठ।  


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